विद्वतपद्धति | भर्तृहरि नीतिशतकम्
विद्वतपध्दति | विद्वान व्यक्ति पर
शास्त्रोपस्कृतशब्दसुन्दरगिरिः शिष्यप्रदेयागमा
विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभोर्निधनः ।
तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य कवयो ह्यर्थं विनापीश्वराः
कुत्स्याः स्युः कुपरीक्षका न मणयो यैरर्घतः पातितः ॥
अगर कोई प्रसिद्ध कवि जो अपने शब्दों का सुन्दर इस्तेमाल करने में माहिर है, और शास्त्रों के ज्ञान में पारंगत है तथा अपने शिष्यों को भी पारंगत करने योग्य है; आपके राज्य में निर्धन है तो हे राजन यह आपका दुर्भाग्य है न की उस विद्वान कवि का!
ज्ञानी पुरुष आर्थिक संपत्ति के बगैर भी अत्यंत धनी होते हैं। बेशकीमती रत्नों को अगर कोई जौहरी ठीक से परख नहीं पाता तो ये परखने वाले जौहरी की कमी है क्यूंकि इन रत्नो की कीमत कभी कम नहीं होती।
हर्तुर्याति न गोचरं किमपि शं पुष्णाति यत्सर्वदा
ह्यर्थिभ्यः प्रतिपाद्यमानमनिशं प्राप्नोति वृद्धिं पराम् ।
कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमन्तर्धन
येषां तान्प्रति मानमुज्झत नृपाः कस्तैः सह स्पर्धते ॥
ज्ञान अद्भुत धन है, ये आपको एक ऐसी अद्भुत ख़ुशी देती है जो कभी समाप्त नहीं होती। जब कोई आपसे ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा लेकर आता है और आप उसकी मदद करते हैं तो आपका ज्ञान कई गुना बढ़ जाता है।शत्रु और आपको लूटने वाले भी इसे छीन नहीं पाएंगे यहाँ तक की ये इस दुनिया के समाप्त हो जाने पर भी ख़त्म नहीं होगा।
अतः हे राजन! यदि आप किसी ऐसे ज्ञान के धनी व्यक्ति को देखते हैं तो अपना अहंकार त्याग दीजिये और समर्पित हो जाइए, क्यूंकि ऐसे विद्वानो से प्रतिस्पर्धा करने का कोई अर्थ नहीं है।
अतः हे राजन! यदि आप किसी ऐसे ज्ञान के धनी व्यक्ति को देखते हैं तो अपना अहंकार त्याग दीजिये और समर्पित हो जाइए, क्यूंकि ऐसे विद्वानो से प्रतिस्पर्धा करने का कोई अर्थ नहीं है।
अधिगतपरमार्थान्पण्डितान्मावमंस्था
स्तृणमिव लघुलक्ष्मीर्नैव तान्संरुणद्धि ।
स्तृणमिव लघुलक्ष्मीर्नैव तान्संरुणद्धि ।
अभिनवमदलेखाश्यामगण्डस्थलानां
न भवति बिसतन्तुवरिणं वारणानाम् ॥
न भवति बिसतन्तुवरिणं वारणानाम् ॥
किसी भी ज्ञानी व्यक्ति को कभी कम नहीं आंकना चाहिए और न ही उनका अपमान करना चाहिए क्यूंकि भौतिक सांसारिक धन सम्पदा उनके लिए तुक्ष्य घास से समान है। जिस तरह एक मदमस्त हाथी को कमल की पंखुड़ियों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता ठीक उसी प्रकार धन दौलत से ज्ञानियों को वश में करना असंभव है !
अम्भोजिनीवनवासविलासमेव,
हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता ।
न त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धां,
वैदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौ समर्थः ॥
हंस पर अत्यंत क्रोधित भगवान ब्रम्हा उसे झील के किनारे कमल के फूलों पर सोने से तो रोक सकते हैं लेकिन वे भी हंस से उसकी दूध से दूध और पानी को अलग कर देने की क्षमता या कला को नहीं छीन सकते।
केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः।
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ॥
कंगन मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ाते, न ही चन्द्रमा की तरह चमकते हार, न ही सुगन्धित जल से स्नान ; देह पर सुगन्धित उबटन लगाने से भी मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ती और न ही फूलों से सजे बाल ही मनुष्य की शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत और सुसज्जित वाणी ही मनुष्य की शोभा बढाती है।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकारी यशःसुखकारी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परा देवता
विद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्याविहीनः पशुः ॥
वास्तव में केवल ज्ञान ही मनुष्य को सुशोभित करता है, यह ऐसा अद्भुत खजाना है जो हमेशा सुरक्षित और छिपा रहता है, इसी के माध्यम से हमें गौरव और सुख मिलता है। ज्ञान ही सभी शिक्षकों को शिक्षक है। विदेशों में विद्या हमारे बंधुओं और मित्रो की भूमिका निभाती है। ज्ञान ही सर्वोच्च सत्ता है। राजा - महाराजा भी ज्ञान को ही पूजते व् सम्मानित करते हैं न की धन को। विद्या और ज्ञान के बिना मनुष्य केवल एक पशु के समान है।
क्षान्तिश्चेत्कवचेन किं, किमिरिभिः क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनां ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद्दिव्यौषधिः किं फलम् ।
किं सर्पैर्यदि दुर्जनः, किमु धनैर्वुद्यानवद्या यदि व्रीडा चेत्किमु भूषणैः सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम् ॥
यदि व्यक्ति धैर्यवान या सहनशील है तो उसे अन्य किसी कवच की क्या आवश्यकता; यदि व्यक्ति को क्रोध है तो उसे किसी अन्य शत्रु से डरने की क्या आवश्यकता; यदि वह रिश्तेदारों से घिरा हैं तो उसे अन्य किसी अग्नि की क्या आवश्यकता; यदि उसके सच्चे मित्र हैं तो उसे किसी भी बीमारी के लिए औषधियों की क्या जरुरत? यदि उसके आप-पास बुरे लोग निवास करते हैं तो उसे सांपों से डरने की क्या आवश्यकता? यदि वह विद्वान है तो उसे धन-दौलत की क्या आवश्यकता? यदि उसमे जरा भी लज्जा है तो उसे अन्य किसी आभूषणों की क्या आवश्यकता तथा अगर उसके पास कुछ अच्छी कवितायेँ या साहित्य हैं तो उसे किसी राजसी ठाठ-बाठ या राजनीति की क्या आवश्यकता हो सकती है।
दाक्षिण्यं स्वजने, दया परजने, शाट्यं सदा दुर्जने
प्रीतिः साधुजने, नयो नृपजने, विद्वज्जनेऽप्यार्जवम् ।
शौर्यं शत्रुजने, क्षमा गुरुजने, नारीजने धूर्तता
ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः ॥
अपनों के प्रति कर्त्तव्य परायणता और दायित्व का निर्वाह करना, अपरिचितों के प्रति दयालुता का भाव रखना, दुष्टों से सदा सावधानी बरतना, अच्छे लोगों के साथ अच्छाई से पेश आना, राजाओं से व्यव्हार कुशलता से पेश आना, विद्वानों के साथ सच्चाई से पेश आना, शत्रुओं से बहादुरी से पेश आना, गुरुजनों से नम्रता से पेश आना, महिलाओं के साथ के साथ समझदारी से पेश आना ; इन गुणों या ऐसे गुणों में माहिर लोगों पर ही सामाजिक प्रतिष्ठा निर्भर करती है।
केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः ।
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ॥
कंगन मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ाते, न ही चन्द्रमा की तरह चमकते हार, न ही सुगन्धित जल से स्नान ; देह पर सुगन्धित उबटन लगाने से भी मनुष्य की शोभा नहीं बढ़ती और न ही फूलों से सजे बाल ही मनुष्य की शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत और सुसज्जित वाणी ही मनुष्य की शोभा बढाती है।
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ॥
वैसे महान कवि जो अपनी रचनाओं में रस भरने में माहिर हैं वे वास्तव में प्रतिष्ठा और कीर्ति के हकदार हैं। इनका सुयशमय शरीर और इनकी कीर्ति उम्र और मृत्यु के भय से बिलकुल स्वतन्त्र और निर्भय है।
सूनुः सच्चरितः सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुखः
स्निग्धं मित्रमवञ्चकः परिजनो निःक्लेशलेशं मनः ।
आकारो रुचिरः स्थिरश्च विभवो विद्यावदातं मुखं
तुष्टे विष्टपकष्टहारिणि हरौ सम्प्राप्यते देहिना॥
सदाचारी पुत्र, पतिव्रता पत्नी, प्रसन्नचित्त और हितैषी मालिक, प्रेम और मदद करने वाले मित्र, निष्कपट सेवक, क्लेशरहित मन, सुन्दर काया, स्थिर धन, ज्ञान से सुशोभुत मुख, ये सब सर्वश्रेष्ठ फल उस मनवांछित फल देनेवाले दुखहर्ता भगवान् विष्णु के अनुग्रह के बिना किसी भी मनुष्य को प्राप्त नहीं हो सकती।
प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं
काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम् ।
तृष्णास्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा
सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष पन्थाः ॥
जीवों को चोट पहुँचाने से बचना, दूसरों का धन हरण करने की इच्छा न रखना, हमेशा सत्य बोलना, समयानुसार श्रद्धा से दान करना, परायी स्त्री की चर्चा करने और सुनाने से दूर रहना, अपनी इच्छाओं को अपने वश में करना, गुरुजनों का आदर करना और सब जीवों पर दया करना,- हम सब के लिए सभी शाश्त्रों के मतानुसार कल्याण तथा प्रसन्नता का मार्ग है।
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ॥
इस संसार में नीच, मध्यम और उत्तम ये तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं; जिनमे से नीच प्रकार के मनुष्य तो आने वाली विध्न-बाधाओं के डर मात्र से ही किसी कार्य की शुरुआत नहीं करते; और मध्यम प्रकार के मनुष्य कार्य की शुरुआत तो करते हैं लेकिन छोटी-छोटी परेशानियों के आते ही काम को अधूरा छोड़ देते हैं; परन्तु उत्तम मनुष्य ऐसे धैर्यवान होते हैं जो बार-बार विपत्तियों के घेर लेने पर भी अपने हाथ में लिए गए काम सम्पूर्ण किये बिना कदापि नहीं छोड़ते।
क्षुत्क्षामोऽपि जराकृशोऽपि शिथिलप्राणोऽपि कष्टां दशाम्
आपन्नोऽपि विपन्नदीधितिरिति प्राणेषु नश्यत्स्वपि ।
मत्तेभेन्द्रविभिन्नकुम्भपिशितग्रासैकबद्धस्पृहः
किं जीर्णं तृणमत्ति मानमहतामग्रेसरः केसरी ॥
जंगल का राजा सिंह मदमस्त हाथी को देखते ही उसके मस्तक पर सवार होकर उसके कुम्भ्स्थल का भेदन करके अपना भोजन बनाने की इच्छा करता है, चाहे वह कितना ही भूखा, बूढा और दुर्बल, बलहीन, अत्यंत दुखी और तेजहीन क्यूँ न हो जाये, परन्तु प्राण संकट उपस्थित होने पर भी सूखी घास नहीं खा सकता ।
References and further reading:
Nisheeth ranjan, hindi sahitya darpan,
https://www.hindisahityadarpan.in/2014/08/attribute-of-wise-and-learned-bhartrihari.html?m=1
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